Monday, June 20, 2011

ज़िंदगी : गणित की पुस्तक




ज़िंदगी 
गणित की एक पुस्तक
की तरह है ,
इसमें सवालों पर सवाल हैं 
और प्रश्नावलियों पर 
प्रश्नावलियाँ हैं ,
जब मैं जोड़ने लगा
तो लगा कि मेरे पास 
बहुत हो गया है ,
जब घटाने लगा
तो लगा कि सारे का सारा 
खो गया है ,
जब मैनें गुणा किया 
तो अंकों के ढेर लगने लगे ,
पर जब भाग किया 
तो माथे पर हाथ धरने लगे,
दर-असल
हमने ज़िंदगी को 
लघुत्तम की तरह लगाया 
और महत्तम की तरह दर्शाया !
इसी बीच ज़िंदगी के सरे गुणनखंड
एक-दूसरे से कट गए 
और हुआ यह 
कि उत्तरमाला के 
सारे पन्ने फट गए !

मेघ हिरना




बादल उठे
राग गर्भित , ऊर्ध्वमुख 
किन्नर देश में -
प्रीति-पर्वत पर उछलते-कूदते ,
कभी हँसते खिल-खिलाते ,
कभी रुक कर सिहरते,
दृग मूँदते,
हिम मंडित शिखर पर 
कभी जमते,
कभी क्रोधित गड़-गड़ाते,
घाटियों में उतर जाते,
बरसते,
नदी बनकर,
कभी झरने की तरह झरना ,
मेघ हिरना ,
अरे ओ , मेघ हिरना ! 

Sunday, April 10, 2011

तुम में ठहरा वसंत



गहरी झील सा 
तुम्हारा नील-मेदुर रूप ,
तुम्हारा नहीं है !
बराबर ऋतूत्सव  मनाती तुम्हारी हँसी ,
यह भी तुम्हारी नहीं है 
और यह जो एक वसंत 
तुम में ठहर गया है ,
यह क्या तुम्हारा है ?
तुम तो कब की ,
नदी सी बह गई होतीं 
मैंने तुम्हें बाँध कर
नदी से झील बना दिया !

Monday, March 14, 2011

मध्यान्तर



द्रष्टा और दृश्य में 
एक अनवरत अन्तर है !
वैसे तो दृश्य कुछ नहीं -
द्रष्टा की अनुभूति है,
पर प्रश्न यह उठता है ,
कि यह भ्रम ,
यह अन्तर ,
मिटता क्यों नहीं 
दृश्य ज्यों का त्यों ,
जैसा है,
वैसा ही दिखता क्यों नहीं 
लहरों के निर्दिष्ट सत्य के साथ 
लोग क्यों बहे  ,
क्यों उतर गए -
पानी में बहुत गहरे !
किनारों के 
प्रतीक्षित सत्य के साथ 
क्यों नहीं ठहरे !

उत्तराधिकार



बस थोड़ी देर 
मुझसे उत्तराधिकार न माँगो
कुछ ही क्षणों में 
मेरी खुली हुई बाहें 
अनुत्तरित प्रश्नों का आकाश 
बाँध लेंगी 
अभी तो कंठ में अटके 
पाषण से टकरा कर 
अन्दर की प्राणवायु 
अन्दर ही घुट  रही है !
नूतन सृष्टि  के लायक 
रक्त निर्विष कहाँ हुआ है !
अभी तो अधबनें वृत्तों 
और टूटती परिधियों के 
सारे बिंदु चोरी हो जायेंगे  
बस थोड़ी देर मुझसे 
और उत्तराधिकार न माँगो !

Tuesday, March 1, 2011

निर्णय



शब्दों की सारी पुरानी कब्रें
खोल दी जाएँ 
बूढ़ी ईंटों पर बैठे 
इतिहास के 
सारे पुराने अर्थों का 
आज निर्णय हो जाए 
हैसियत के मुताबिक 
जन्नत और दोज़ख 
बख्श दी जाय,

क्योंकि 
ज़िंदा सन्दर्भों को
मृत कब्रों में 
दबाया नहीं जा सकता 
और अनिर्णीत इतिहास को 
सडकों पर बहुत दिन 
घूमने नहीं दिया जा सकता !

Friday, February 18, 2011

अभयारण्य




यहाँ
इस अभयारण्य में ,
वन्य-जीवन 
पूरा सुरक्षित है 
कितनी मुक्त है 
--वनता 
यहाँ दूर-दूर तक ,
उछालना ,कुचलना ,दबोचना,
या कुण्डली में बाँध कर पीसना-
मारना-मरना ,
कितना सहज है 
मौका लगने पर
गीदड़ों तक का यहाँ आक्रमण करना ,
सिंह का आक्रमण 
यहाँ का विशिष्ट आयोजन है 
सिंह जब हिरनी को दबोचता है 
तब,
तभी तो लगता है 
हमारे भीतर भी कहीं कोई 
अभयारण्य  है,
कहीं कोई जंगल दुबका है 
हमारे मनों में 
नहीं तो यहाँ इस तरह ,
क्यों होते हम वनों में !

Saturday, January 29, 2011

वन-निष्ठा




मैंने नहीं सोचा था  
कि मेरे लिए 
मेरी वन-निष्ठा का 
यह परिणाम होगा 
वन-महोत्सव पर 
तालियाँ बजाकर अभी मैं उठा ही था 
कि तुमने मुझे भी 
एक वृक्ष की तरह रोप दिया !

तालियों की गड़- गड़ाहट ,
अभी थमी भी न थी ,
कि वृक्ष सहसा बहुत ऊँचे हो गए,
और लताओं ने ,
एक गहन कान्तार का सृजन किया !
तुम्हारे शब्दों का जादू ,
मैं जानता तो था ,
पर यह नहीं सोचा था 
कि मेरे तुम्हारे बीच 
वन सहसा इतना घना हो जायेगा 
तुम पास होकर भी इतनी दूर हो जाओगे !

कुछ बड़े सही ,
पर तुम भी हमारी तरह ,
वृक्ष हो जाओगे !

अब यहाँ,
इस गहन वन में 
हमारे पीछे छुपी
हिंस्र हुंकारे हैं , आक्रामक गुर्राहटें  हैं ,
लपलपाती जीभें हैं -
इन्होंने  हमें नहीं डसा !

अभी-अभी ये अजगर
हमारे बीच से निकल कर गया ,
इसने हमें नहीं कसा,
तो अपने वन होने का एहसास
और घना हो गया !

मुझे तुम्हारे शब्दों के जादू पर 
विश्वास तो था ,
पर मैंने यह नहीं सोचा था ,
कि हम इतनी जल्दी 
सहसा वन हो जायेंगे !

Friday, January 28, 2011

अनुभूत



वह सब कुछ जो घटा,
वह सब कुछ जो दिखा 
और वह सब कुछ 
जो  अनुभव में आया 
शब्द नहीं हुआ
मेरे शब्दकृत से
मेरा निश्शब्द -कृत  था 
कहीं ज्यादा बड़ा,
कहीं ज्यादा प्रवहमान ,
कहीं ज्यादा ज्वलंत -
जिसे शब्द सह नहीं सका
और जिसे 
कवि होकर भी
मैं  कह  नहीं सका !
अनुभूत को वचन देना 
साधना  है,
तपस्या है,
परीक्षा है,
जो बहुत कड़ी है,
आदमी की अस्मिता,
भाषा से कहीं ज्यादा-
बड़ी है ! 

माध्यमिक एहसास


हम कहीं बीच से 
चलना शुरू कर देते हैं ,
और इससे पहले 
की राह ख़त्म हो
हम चलना बंद कर देते हैं !
शोधों,सन्दर्भों से हीन
परिणाम-वन्ध्या राहों पर गति
प्राथमिक या अंतिम नहीं 
माध्यमिक एहसास है ! 

राह


इस सृष्टि की कोई राह 
कहीं नहीं जाती 
बस एक दूसरी से 
मिल भर जाती है ,
और जब भी हम
किसी राह के 
मुहाने तक पहुँचते हैं 
वह दूसरी से मिलकर 
और बड़ी हो जाती है ,
फिर सडकों,पगडंडियों,
गलियों,गलियारों से 
होता हुआ ,
जितना कुछ कोई नाप पाता है ,
उसी संख्या- बोध को
माथे से चिपका कर 
मील  का पत्थर बन 
गड़ जाता है !

Saturday, January 22, 2011

माध्यम



पीठ से रेंग कर 
गुजर गयी 
पूरी एक पीढ़ी
बहुरंगी हवाओं का 
समूचा एक काफिला ,
बैलगाड़ी के पीछे से कार 
बहुत से मनचले 
गुजरे ही नहीं 
ऊपर से झाँक कर
तरंगे देखते रहे 
अब भी खड़े हैं 
पानी के बीच में
सर उठाए भग्न स्तम्भ 
ऊपर को खुल गया 
अधटूटा   पोपला मुँह
और कुछ नहीं हुआ 
एक माध्यम 
ढह गया 
एक पुल टूट गया !

Monday, January 17, 2011

इसी यज्ञ-वेदी से



मन करता है ,

एक तीर छोडूँ
यहीं इसी यज्ञ-वेदी  से ,
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !
मणि-बांध पर कलापक बाँध ,
पावित्री पहन ,
हाथ में श्रुवा ले ,
इधर मैं हवन कर रहा हूँ 
और उधर कोई जयंत
अपनी काक-चंचु से 
क्षत-विक्षत किये दे रहा है 
प्रिया की समूची देह ,
सारा वन-प्रांतर,
मेरा मन, मेरी भावना 
मेरा समूचा चित्रकूट!

मन करता है ,

एक तीर छोडूँ ,
जो खंड-खंड कर दे 
इस जयंत देह को ,
इस निरंतर दीर्घ होती 
काक-चंचु को !

पर जैसे शाप-ग्रस्त हो गयी है 
यह मेरी शिव-धनुष तोड़ने वाली भुजा 
अब जिस धनुष को छूता हूँ 
टूक-टूक हो जाता है !

मन तो करता है ,
एक तीर छोडूँ 
यहीं इसी यज्ञ-वेदी से 
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !

Sunday, January 16, 2011

यज्ञ -वेदी



जाने क्यों ?

यह अनहोनी बार-बार होती है -
मैं  कोई ऋषि तो नहीं हूँ 
फिर भी मेरे मन में 
एक  ऋचा जन्म लेती है !
मैं वैदिक हो जाता हूँ 
और मन आदिम गंध से भर उठता है  !
मैं जानता हूँ ,तुम उर्वशी नहीं हो 
पर अपने इस पुरुरवा -मन का क्या करूँ
तुम शकुंतला भी नहीं हो ,
तुम गंगा हो,
और यह जो एक हठीला 'देवव्रत ' शब्द
मेरे मन में छोड़ गयी हो
यह मेरे लिए 
एक आरण्यक अभिव्यक्ति का सृजन करता है
मेरे चारों ओर 
भाषा का एक उत्सव होने लगता है 
एक सोमवल्ली सर्वांग से निचुड़ कर 
सामकंठी  बन जाती है,
शब्द-शब्द अनुष्टुप नृत्य में 
निमग्न हो जाता  हैं 
और कविता मेरे लिए पर्व हो उठती है,
जीवन हवन-कुण्ड सा जलता है
एक-एक दिन हविष्यान्न बनता है
जाने क्यों ?
यह अनहोनी बार-बार होती है
मैं कोई ऋषि तो नहीं हूँ
फिर भी मेरे मन में 
एक ऋचा जन्म लेती है !

अनवरत


यों ही जागता रहेगा 
नदी में शाश्वत राग,
अनवरत विलास ,
यों ही झंकृत होती रहेगी 
नदी की आदिम देह ,
यों ही ऊँघते किनारों को
कुहनियाँ मार,
चुटकियाँ भर ,
जगाती रहेगी नदी ,
गीत गायेगी ,सार्थक करेगी 
अपनी देह, अपना मन ,अपनी आत्मा  !

यों ही हहराती रहेगी 
नदी अनुरागिनी ,
यों ही सुखोर्मियाँ उछालेगी
नदी जल-भामिनी !

योंही,योंही 
यह यह बिछा हुआ जल-सुख
वर्ण- वर्ण में अंकित,
शब्द-शब्द में अर्थित ,
सागर-निवेदित
नदी का छन्दोल्लास
कभी ख़त्म नहीं होगा 
कभी नहीं रुकेगी 
यह अनवरत धारा 
कभी नहीं चुकेगा 
यह चिर-उत्स !

सिन्धुप्रिया _______



सिन्धुप्रिया के मन में 
कहीं कोई कामना फँसी है,
किसी आदिम रम्यता का
कोई व्यापक सम्मोहन ,
कर्षित कर रहा है उसे 
नहीं तो यों-
स्तंभित
एक रूपरचना 
एक चित्र  नहीं होती नदी !
     
कहीं कुछ पा लेने की
हर्ष गद-गद स्वीकृति ,
कोई तन्मय स्वर-लिपि है -
नदी की देह-वीणा में-
नहीं तो यों गीत नहीं होती नदी !          

किसी आकुल शब्द-रचना का 
कोई अप्रकट अनुष्टुप 
उद्वेलित कर रहा है -
नदी का मन ,
नहीं तो यों छन्द नहीं होती नदी !

कहीं कुछ है 
अनुभूत
सहज अभिव्यक्ति-काम्य
उमड़ता हुआ
नहीं तो यों ,
एक असमाप्त यात्रा 
एक अनवरत शब्द नहीं होती नदी !