मन करता है ,
एक तीर छोडूँ
यहीं इसी यज्ञ-वेदी से ,
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !
मणि-बांध पर कलापक बाँध ,
पावित्री पहन ,
हाथ में श्रुवा ले ,
इधर मैं हवन कर रहा हूँ
और उधर कोई जयंत
अपनी काक-चंचु से
क्षत-विक्षत किये दे रहा है
प्रिया की समूची देह ,
सारा वन-प्रांतर,
मेरा मन, मेरी भावना
मेरा समूचा चित्रकूट!
मन करता है ,
एक तीर छोडूँ ,
जो खंड-खंड कर दे
इस जयंत देह को ,
इस निरंतर दीर्घ होती
काक-चंचु को !
पर जैसे शाप-ग्रस्त हो गयी है
यह मेरी शिव-धनुष तोड़ने वाली भुजा
अब जिस धनुष को छूता हूँ
टूक-टूक हो जाता है !
मन तो करता है ,
एक तीर छोडूँ
यहीं इसी यज्ञ-वेदी से
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !
No comments:
Post a Comment