Monday, January 17, 2011

इसी यज्ञ-वेदी से



मन करता है ,

एक तीर छोडूँ
यहीं इसी यज्ञ-वेदी  से ,
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !
मणि-बांध पर कलापक बाँध ,
पावित्री पहन ,
हाथ में श्रुवा ले ,
इधर मैं हवन कर रहा हूँ 
और उधर कोई जयंत
अपनी काक-चंचु से 
क्षत-विक्षत किये दे रहा है 
प्रिया की समूची देह ,
सारा वन-प्रांतर,
मेरा मन, मेरी भावना 
मेरा समूचा चित्रकूट!

मन करता है ,

एक तीर छोडूँ ,
जो खंड-खंड कर दे 
इस जयंत देह को ,
इस निरंतर दीर्घ होती 
काक-चंचु को !

पर जैसे शाप-ग्रस्त हो गयी है 
यह मेरी शिव-धनुष तोड़ने वाली भुजा 
अब जिस धनुष को छूता हूँ 
टूक-टूक हो जाता है !

मन तो करता है ,
एक तीर छोडूँ 
यहीं इसी यज्ञ-वेदी से 
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !

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