जाने क्यों ?
यह अनहोनी बार-बार होती है -
मैं कोई ऋषि तो नहीं हूँ
फिर भी मेरे मन में
एक ऋचा जन्म लेती है !
मैं वैदिक हो जाता हूँ
और मन आदिम गंध से भर उठता है !
मैं जानता हूँ ,तुम उर्वशी नहीं हो
पर अपने इस पुरुरवा -मन का क्या करूँ
तुम शकुंतला भी नहीं हो ,
तुम गंगा हो,
और यह जो एक हठीला 'देवव्रत ' शब्द
मेरे मन में छोड़ गयी हो
यह मेरे लिए
एक आरण्यक अभिव्यक्ति का सृजन करता है
मेरे चारों ओर
भाषा का एक उत्सव होने लगता है
एक सोमवल्ली सर्वांग से निचुड़ कर
सामकंठी बन जाती है,
शब्द-शब्द अनुष्टुप नृत्य में
निमग्न हो जाता हैं
और कविता मेरे लिए पर्व हो उठती है,
जीवन हवन-कुण्ड सा जलता है
एक-एक दिन हविष्यान्न बनता है
जाने क्यों ?
यह अनहोनी बार-बार होती है
मैं कोई ऋषि तो नहीं हूँ
फिर भी मेरे मन में
एक ऋचा जन्म लेती है !
aap wrishi bhale na ho ,par aapka man BALMIKI jo hai .HAR BEDNA SE EK RICHA JANM TO LEGI HI
ReplyDeleteपीड़ा के सघन वन को पार कर जीवन काव्य की आलोकमयी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजब मन-प्रांगण में प्रथम पग धरती है तो अपनी नूपुर ध्वनि से जीवन को धन्य
कर जाती है ! कुछ ऐसी ही धन्यता के दर्शन कराती है यह सुन्दर रचना !