Sunday, January 16, 2011

अनवरत


यों ही जागता रहेगा 
नदी में शाश्वत राग,
अनवरत विलास ,
यों ही झंकृत होती रहेगी 
नदी की आदिम देह ,
यों ही ऊँघते किनारों को
कुहनियाँ मार,
चुटकियाँ भर ,
जगाती रहेगी नदी ,
गीत गायेगी ,सार्थक करेगी 
अपनी देह, अपना मन ,अपनी आत्मा  !

यों ही हहराती रहेगी 
नदी अनुरागिनी ,
यों ही सुखोर्मियाँ उछालेगी
नदी जल-भामिनी !

योंही,योंही 
यह यह बिछा हुआ जल-सुख
वर्ण- वर्ण में अंकित,
शब्द-शब्द में अर्थित ,
सागर-निवेदित
नदी का छन्दोल्लास
कभी ख़त्म नहीं होगा 
कभी नहीं रुकेगी 
यह अनवरत धारा 
कभी नहीं चुकेगा 
यह चिर-उत्स !

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