यह तुम्हारा नदी होना
मुझे अच्छा नहीं लगता ,
यह तुम्हारा लगातार कुछ कहना
और अपना मौन रहना ,
यह तुम्हारा अनवरत बहना
और अपना किनारों की तरह
ठहरे रहना ,
यों पानी को छूते हुए
लगातार प्यासे रहना
मुझे अच्छा नहीं लगता ,
तुम्हें पाने के लिए
मैं तुम पर एक पुल की तरह बिछ गया
और तुम -
मेरे पास सिर्फ उतनी ही देर ठहरीं ,
जितनी देर
तुम्हें मेरी देह नापने में लगी !
तुमने चाहे बहुत सहज होकर
मुझे छुआ हो
पर तुम्हारी तरंगों के तेवर से
मैं काँप-काँप गया हूँ !
यों धारा को चीरते हुए
एक पुल के अहसास के साथ जीना
मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता !
वैसे होने को मैं क्या नहीं हुआ
तुम्हें छाती पर लादे हुए पहाड़ हुआ
पुल हुआ,किनारा हुआ
और आज सागर हूँ ,
पर तुम मुझमें डूब कर
मुझ में मिल कर भी
कहीं अलग-ही बह रही हो !
वाह री मेरी कामना ,
इसने मुझे तुमसे दूर कहीं जाने नहीं दिया
और आह रे पुरुष मन के अहंकार ,