Monday, March 14, 2011

मध्यान्तर



द्रष्टा और दृश्य में 
एक अनवरत अन्तर है !
वैसे तो दृश्य कुछ नहीं -
द्रष्टा की अनुभूति है,
पर प्रश्न यह उठता है ,
कि यह भ्रम ,
यह अन्तर ,
मिटता क्यों नहीं 
दृश्य ज्यों का त्यों ,
जैसा है,
वैसा ही दिखता क्यों नहीं 
लहरों के निर्दिष्ट सत्य के साथ 
लोग क्यों बहे  ,
क्यों उतर गए -
पानी में बहुत गहरे !
किनारों के 
प्रतीक्षित सत्य के साथ 
क्यों नहीं ठहरे !

उत्तराधिकार



बस थोड़ी देर 
मुझसे उत्तराधिकार न माँगो
कुछ ही क्षणों में 
मेरी खुली हुई बाहें 
अनुत्तरित प्रश्नों का आकाश 
बाँध लेंगी 
अभी तो कंठ में अटके 
पाषण से टकरा कर 
अन्दर की प्राणवायु 
अन्दर ही घुट  रही है !
नूतन सृष्टि  के लायक 
रक्त निर्विष कहाँ हुआ है !
अभी तो अधबनें वृत्तों 
और टूटती परिधियों के 
सारे बिंदु चोरी हो जायेंगे  
बस थोड़ी देर मुझसे 
और उत्तराधिकार न माँगो !

Tuesday, March 1, 2011

निर्णय



शब्दों की सारी पुरानी कब्रें
खोल दी जाएँ 
बूढ़ी ईंटों पर बैठे 
इतिहास के 
सारे पुराने अर्थों का 
आज निर्णय हो जाए 
हैसियत के मुताबिक 
जन्नत और दोज़ख 
बख्श दी जाय,

क्योंकि 
ज़िंदा सन्दर्भों को
मृत कब्रों में 
दबाया नहीं जा सकता 
और अनिर्णीत इतिहास को 
सडकों पर बहुत दिन 
घूमने नहीं दिया जा सकता !