Friday, January 28, 2011

राह


इस सृष्टि की कोई राह 
कहीं नहीं जाती 
बस एक दूसरी से 
मिल भर जाती है ,
और जब भी हम
किसी राह के 
मुहाने तक पहुँचते हैं 
वह दूसरी से मिलकर 
और बड़ी हो जाती है ,
फिर सडकों,पगडंडियों,
गलियों,गलियारों से 
होता हुआ ,
जितना कुछ कोई नाप पाता है ,
उसी संख्या- बोध को
माथे से चिपका कर 
मील  का पत्थर बन 
गड़ जाता है !

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