गहरी झील सा
तुम्हारा नील-मेदुर रूप ,
तुम्हारा नहीं है !
बराबर ऋतूत्सव मनाती तुम्हारी हँसी ,
यह भी तुम्हारी नहीं है
और यह जो एक वसंत
तुम में ठहर गया है ,
यह क्या तुम्हारा है ?
तुम तो कब की ,
नदी सी बह गई होतीं
मैंने तुम्हें बाँध कर
नदी से झील बना दिया !
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