युद्धमुद्रा
Friday, January 28, 2011
राह
इस सृष्टि की कोई राह
कहीं नहीं जाती
बस एक दूसरी से
मिल भर जाती है ,
और जब भी हम
किसी राह के
मुहाने तक पहुँचते हैं
वह दूसरी से मिलकर
और बड़ी हो जाती है ,
फिर सडकों,पगडंडियों,
गलियों,गलियारों से
होता हुआ ,
जितना कुछ कोई नाप पाता है ,
उसी संख्या- बोध को
माथे से चिपका कर
मील का पत्थर बन
गड़ जाता है !
1 comment:
Udan Tashtari
January 28, 2011 at 7:26 AM
बहुत सही!!
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