Sunday, April 10, 2011

तुम में ठहरा वसंत



गहरी झील सा 
तुम्हारा नील-मेदुर रूप ,
तुम्हारा नहीं है !
बराबर ऋतूत्सव  मनाती तुम्हारी हँसी ,
यह भी तुम्हारी नहीं है 
और यह जो एक वसंत 
तुम में ठहर गया है ,
यह क्या तुम्हारा है ?
तुम तो कब की ,
नदी सी बह गई होतीं 
मैंने तुम्हें बाँध कर
नदी से झील बना दिया !