जो मैंने लगाई थीं ,
मुझसे बड़ी हो गयी हैं !
सब,
मेरे ही खिलाफ
तन कर खड़ी हो गयी हैं !
मैं इन्हें खोलने चलता हूँ ,
तो ये बोलती हैं !
बंधे ही बंधे
बहुत कुछ खोलती हैं !
मैं इनकी आवाज़ से
डरता हूँ !
मैं जानता हूँ,
कि इससे
मैं कुछ घटता हूँ !
लेकिन मैं
इन्हें बिना खोले
जी नहीं सकता
और गांठें हैं
कि बिना बोले
खुल नहीं सकतीं !