Saturday, January 29, 2011

वन-निष्ठा




मैंने नहीं सोचा था  
कि मेरे लिए 
मेरी वन-निष्ठा का 
यह परिणाम होगा 
वन-महोत्सव पर 
तालियाँ बजाकर अभी मैं उठा ही था 
कि तुमने मुझे भी 
एक वृक्ष की तरह रोप दिया !

तालियों की गड़- गड़ाहट ,
अभी थमी भी न थी ,
कि वृक्ष सहसा बहुत ऊँचे हो गए,
और लताओं ने ,
एक गहन कान्तार का सृजन किया !
तुम्हारे शब्दों का जादू ,
मैं जानता तो था ,
पर यह नहीं सोचा था 
कि मेरे तुम्हारे बीच 
वन सहसा इतना घना हो जायेगा 
तुम पास होकर भी इतनी दूर हो जाओगे !

कुछ बड़े सही ,
पर तुम भी हमारी तरह ,
वृक्ष हो जाओगे !

अब यहाँ,
इस गहन वन में 
हमारे पीछे छुपी
हिंस्र हुंकारे हैं , आक्रामक गुर्राहटें  हैं ,
लपलपाती जीभें हैं -
इन्होंने  हमें नहीं डसा !

अभी-अभी ये अजगर
हमारे बीच से निकल कर गया ,
इसने हमें नहीं कसा,
तो अपने वन होने का एहसास
और घना हो गया !

मुझे तुम्हारे शब्दों के जादू पर 
विश्वास तो था ,
पर मैंने यह नहीं सोचा था ,
कि हम इतनी जल्दी 
सहसा वन हो जायेंगे !

Friday, January 28, 2011

अनुभूत



वह सब कुछ जो घटा,
वह सब कुछ जो दिखा 
और वह सब कुछ 
जो  अनुभव में आया 
शब्द नहीं हुआ
मेरे शब्दकृत से
मेरा निश्शब्द -कृत  था 
कहीं ज्यादा बड़ा,
कहीं ज्यादा प्रवहमान ,
कहीं ज्यादा ज्वलंत -
जिसे शब्द सह नहीं सका
और जिसे 
कवि होकर भी
मैं  कह  नहीं सका !
अनुभूत को वचन देना 
साधना  है,
तपस्या है,
परीक्षा है,
जो बहुत कड़ी है,
आदमी की अस्मिता,
भाषा से कहीं ज्यादा-
बड़ी है ! 

माध्यमिक एहसास


हम कहीं बीच से 
चलना शुरू कर देते हैं ,
और इससे पहले 
की राह ख़त्म हो
हम चलना बंद कर देते हैं !
शोधों,सन्दर्भों से हीन
परिणाम-वन्ध्या राहों पर गति
प्राथमिक या अंतिम नहीं 
माध्यमिक एहसास है ! 

राह


इस सृष्टि की कोई राह 
कहीं नहीं जाती 
बस एक दूसरी से 
मिल भर जाती है ,
और जब भी हम
किसी राह के 
मुहाने तक पहुँचते हैं 
वह दूसरी से मिलकर 
और बड़ी हो जाती है ,
फिर सडकों,पगडंडियों,
गलियों,गलियारों से 
होता हुआ ,
जितना कुछ कोई नाप पाता है ,
उसी संख्या- बोध को
माथे से चिपका कर 
मील  का पत्थर बन 
गड़ जाता है !

Saturday, January 22, 2011

माध्यम



पीठ से रेंग कर 
गुजर गयी 
पूरी एक पीढ़ी
बहुरंगी हवाओं का 
समूचा एक काफिला ,
बैलगाड़ी के पीछे से कार 
बहुत से मनचले 
गुजरे ही नहीं 
ऊपर से झाँक कर
तरंगे देखते रहे 
अब भी खड़े हैं 
पानी के बीच में
सर उठाए भग्न स्तम्भ 
ऊपर को खुल गया 
अधटूटा   पोपला मुँह
और कुछ नहीं हुआ 
एक माध्यम 
ढह गया 
एक पुल टूट गया !

Monday, January 17, 2011

इसी यज्ञ-वेदी से



मन करता है ,

एक तीर छोडूँ
यहीं इसी यज्ञ-वेदी  से ,
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !
मणि-बांध पर कलापक बाँध ,
पावित्री पहन ,
हाथ में श्रुवा ले ,
इधर मैं हवन कर रहा हूँ 
और उधर कोई जयंत
अपनी काक-चंचु से 
क्षत-विक्षत किये दे रहा है 
प्रिया की समूची देह ,
सारा वन-प्रांतर,
मेरा मन, मेरी भावना 
मेरा समूचा चित्रकूट!

मन करता है ,

एक तीर छोडूँ ,
जो खंड-खंड कर दे 
इस जयंत देह को ,
इस निरंतर दीर्घ होती 
काक-चंचु को !

पर जैसे शाप-ग्रस्त हो गयी है 
यह मेरी शिव-धनुष तोड़ने वाली भुजा 
अब जिस धनुष को छूता हूँ 
टूक-टूक हो जाता है !

मन तो करता है ,
एक तीर छोडूँ 
यहीं इसी यज्ञ-वेदी से 
जिस पर तुमने मुझे दीक्षित किया है !

Sunday, January 16, 2011

यज्ञ -वेदी



जाने क्यों ?

यह अनहोनी बार-बार होती है -
मैं  कोई ऋषि तो नहीं हूँ 
फिर भी मेरे मन में 
एक  ऋचा जन्म लेती है !
मैं वैदिक हो जाता हूँ 
और मन आदिम गंध से भर उठता है  !
मैं जानता हूँ ,तुम उर्वशी नहीं हो 
पर अपने इस पुरुरवा -मन का क्या करूँ
तुम शकुंतला भी नहीं हो ,
तुम गंगा हो,
और यह जो एक हठीला 'देवव्रत ' शब्द
मेरे मन में छोड़ गयी हो
यह मेरे लिए 
एक आरण्यक अभिव्यक्ति का सृजन करता है
मेरे चारों ओर 
भाषा का एक उत्सव होने लगता है 
एक सोमवल्ली सर्वांग से निचुड़ कर 
सामकंठी  बन जाती है,
शब्द-शब्द अनुष्टुप नृत्य में 
निमग्न हो जाता  हैं 
और कविता मेरे लिए पर्व हो उठती है,
जीवन हवन-कुण्ड सा जलता है
एक-एक दिन हविष्यान्न बनता है
जाने क्यों ?
यह अनहोनी बार-बार होती है
मैं कोई ऋषि तो नहीं हूँ
फिर भी मेरे मन में 
एक ऋचा जन्म लेती है !

अनवरत


यों ही जागता रहेगा 
नदी में शाश्वत राग,
अनवरत विलास ,
यों ही झंकृत होती रहेगी 
नदी की आदिम देह ,
यों ही ऊँघते किनारों को
कुहनियाँ मार,
चुटकियाँ भर ,
जगाती रहेगी नदी ,
गीत गायेगी ,सार्थक करेगी 
अपनी देह, अपना मन ,अपनी आत्मा  !

यों ही हहराती रहेगी 
नदी अनुरागिनी ,
यों ही सुखोर्मियाँ उछालेगी
नदी जल-भामिनी !

योंही,योंही 
यह यह बिछा हुआ जल-सुख
वर्ण- वर्ण में अंकित,
शब्द-शब्द में अर्थित ,
सागर-निवेदित
नदी का छन्दोल्लास
कभी ख़त्म नहीं होगा 
कभी नहीं रुकेगी 
यह अनवरत धारा 
कभी नहीं चुकेगा 
यह चिर-उत्स !

सिन्धुप्रिया _______



सिन्धुप्रिया के मन में 
कहीं कोई कामना फँसी है,
किसी आदिम रम्यता का
कोई व्यापक सम्मोहन ,
कर्षित कर रहा है उसे 
नहीं तो यों-
स्तंभित
एक रूपरचना 
एक चित्र  नहीं होती नदी !
     
कहीं कुछ पा लेने की
हर्ष गद-गद स्वीकृति ,
कोई तन्मय स्वर-लिपि है -
नदी की देह-वीणा में-
नहीं तो यों गीत नहीं होती नदी !          

किसी आकुल शब्द-रचना का 
कोई अप्रकट अनुष्टुप 
उद्वेलित कर रहा है -
नदी का मन ,
नहीं तो यों छन्द नहीं होती नदी !

कहीं कुछ है 
अनुभूत
सहज अभिव्यक्ति-काम्य
उमड़ता हुआ
नहीं तो यों ,
एक असमाप्त यात्रा 
एक अनवरत शब्द नहीं होती नदी !