यों ही जागता रहेगा
नदी में शाश्वत राग,
अनवरत विलास ,
यों ही झंकृत होती रहेगी
नदी की आदिम देह ,
यों ही ऊँघते किनारों को
कुहनियाँ मार,
चुटकियाँ भर ,
जगाती रहेगी नदी ,
गीत गायेगी ,सार्थक करेगी
अपनी देह, अपना मन ,अपनी आत्मा !
यों ही हहराती रहेगी
नदी अनुरागिनी ,
यों ही सुखोर्मियाँ उछालेगी
नदी जल-भामिनी !
योंही,योंही
यह यह बिछा हुआ जल-सुख
वर्ण- वर्ण में अंकित,
शब्द-शब्द में अर्थित ,
सागर-निवेदित
नदी का छन्दोल्लास
कभी ख़त्म नहीं होगा
कभी नहीं रुकेगी
यह अनवरत धारा
कभी नहीं चुकेगा
यह चिर-उत्स !
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