Wednesday, December 22, 2010

तुम्हारा नदी-मन



यह तुम्हारा नदी होना 
मुझे अच्छा नहीं लगता ,
यह तुम्हारा लगातार कुछ कहना 
और अपना मौन रहना ,
यह तुम्हारा अनवरत बहना 
और अपना किनारों की  तरह 
ठहरे रहना ,
यों पानी को छूते हुए 
लगातार प्यासे रहना 
मुझे अच्छा नहीं लगता ,
तुम्हें पाने के लिए 
मैं तुम पर एक पुल की तरह बिछ गया
और तुम -
मेरे पास सिर्फ उतनी ही देर ठहरीं ,
जितनी देर 
तुम्हें मेरी देह नापने में लगी !
तुमने चाहे बहुत सहज होकर 
मुझे छुआ हो 
पर तुम्हारी तरंगों के तेवर से 
मैं काँप-काँप गया हूँ !
यों धारा को चीरते हुए 
एक पुल के अहसास के साथ जीना 
मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता !
वैसे होने को मैं क्या नहीं हुआ 
तुम्हें छाती पर लादे हुए पहाड़ हुआ 
पुल हुआ,किनारा हुआ
और आज सागर हूँ ,
पर तुम मुझमें डूब कर 
मुझ में मिल कर भी 
कहीं अलग-ही बह रही हो !
वाह री मेरी कामना ,
इसने मुझे तुमसे दूर कहीं जाने नहीं दिया 
और आह रे पुरुष मन के अहंकार ,
इसने नारी को कभी पाने नहीं दिया !

गंगा



माँ,
तुम्हारे तट तक आकर भी
मैं यज्ञ  के पश्चात का
अपना पवित्र स्नान स्थगित करता हूँ ,
क्योकि 
मेरे यज्ञ -अश्व की वल्गाएँ थामे 
मेरे ही पुत्र 
मेरे विरुद्ध खड़े हैं ,
मैं इनसे अश्व नहीं माँगूगा 
न युद्ध करूँगा 
इन्हें देता हूँ उत्तराधिकार में 
यह अधूरा अश्व-मेध ,
अनुत्तरित प्रश्नों का 
यह समूचा आकाश !
माँ ,
तब तक तुम बराबर बहना
अनवरत रहना 
जब तक वाण-फलकों पर सोये 
तुम्हारे पुत्र 
उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा कर रहे हैं 
और मैं व्यग्र हूँ-
उस दिन के लिए 
जब विश्व-विजयी अश्व के पीछे 
मेरे वंशज 
अनुत्तरित  प्रश्नों का आकाश 
बांध लायेंगे 
तब तक एक -एक दिन 
समिधा की तरह चुनूँगा  
और जीवन
यज्ञ की तरह जियूँगा 
माँ ,
मैं उस दिन के लिए 
अपना अवभृथ स्थगित करता हूँ !

नदी : एक नमन ,एक प्रार्थना



एक अन्तर्सुख से 
द्रवित हो गया है हिमालय 
पिघलने लगी है हिम-रेणु,
फेन-हास हँसती
पूर्वराग सी जन्मती है नदी !

उफनती 
दोनों किनारों में कसमसाती 
एक असम्वरण ,एक वेग,एक भावना होती है नदी !

पर्वत के पलंग से नीचे पाँव धरती 
किनारों की अंजुरी में 
अर्घ्य सी भरती,
एक पूजा ,एक द्रवण,एक प्रार्थना होती है नदी !

धीर-गंभीर ,मंद-मंदतर 
लहर लहर में टीसती 
अपने समग्र में 
एक विप्रलंभ,एक  साधना होती है नदी !

दूर तक बिछी 
शुष्क ,निर्जला,
एक व्रत,एक इच्छा ,एक कामना होती है नदी !

नदी
दरअसल जब बहती है ,
नदी नहीं होती
प्रणय होती है -
उद्दाम ,उद्वेलित,फेनोच्छ्वसित
धरती के वक्ष को फाड़ती
एक लिप्सा,एक वासना होती है नदी !

Tuesday, December 21, 2010

अभिमन्यु



क्षत-विक्षत पड़े थे नारे 
फिर उगनें लगे हैं ,
टूट कर खंडित हो गए थे जुलूस 
फिर उठने लगे हैं ,
ऐसे में अच्छा हुआ 
- मेरे अभिमन्यु ,
कि तुम पैदा हो गए ,
मैं तुम्हारा पिता 
तुम्हारी अधूरी शिक्षा के लिए 
उत्तरदायी हूँ ,
इसलिए आज 
अपने सारे अधिकार 
विसर्जित करता हूँ 
और यह चक्रव्यूह -सा देश 
तुम्हें समर्पित करता हूँ !