ज़िंदगी
गणित की एक पुस्तक
की तरह है ,
इसमें सवालों पर सवाल हैं
और प्रश्नावलियों पर
प्रश्नावलियाँ हैं ,
जब मैं जोड़ने लगा
तो लगा कि मेरे पास
बहुत हो गया है ,
जब घटाने लगा
तो लगा कि सारे का सारा
खो गया है ,
जब मैनें गुणा किया
तो अंकों के ढेर लगने लगे ,
पर जब भाग किया
तो माथे पर हाथ धरने लगे,
दर-असल
हमने ज़िंदगी को
लघुत्तम की तरह लगाया
और महत्तम की तरह दर्शाया !
इसी बीच ज़िंदगी के सरे गुणनखंड
एक-दूसरे से कट गए
और हुआ यह
कि उत्तरमाला के
सारे पन्ने फट गए !