एक अन्तर्सुख से
द्रवित हो गया है हिमालय
पिघलने लगी है हिम-रेणु,
फेन-हास हँसती
पूर्वराग सी जन्मती है नदी !
उफनती
दोनों किनारों में कसमसाती
एक असम्वरण ,एक वेग,एक भावना होती है नदी !
पर्वत के पलंग से नीचे पाँव धरती
किनारों की अंजुरी में
अर्घ्य सी भरती,
एक पूजा ,एक द्रवण,एक प्रार्थना होती है नदी !
धीर-गंभीर ,मंद-मंदतर
लहर लहर में टीसती
अपने समग्र में
एक विप्रलंभ,एक साधना होती है नदी !
दूर तक बिछी
शुष्क ,निर्जला,
एक व्रत,एक इच्छा ,एक कामना होती है नदी !
नदी
दरअसल जब बहती है ,
नदी नहीं होती
प्रणय होती है -
उद्दाम ,उद्वेलित,फेनोच्छ्वसित
धरती के वक्ष को फाड़ती
एक लिप्सा,एक वासना होती है नदी !
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