Tuesday, June 29, 2010

गांठें

वे गांठें,
जो मैंने लगाई थीं ,
मुझसे बड़ी हो गयी हैं !
सब,
मेरे ही खिलाफ 
तन कर खड़ी हो गयी हैं !
मैं इन्हें खोलने चलता हूँ ,
तो ये बोलती हैं !
बंधे ही बंधे 
बहुत कुछ खोलती हैं !
मैं इनकी आवाज़ से
 डरता हूँ !
मैं जानता हूँ,
कि इससे
 मैं कुछ घटता हूँ !
 लेकिन मैं
 इन्हें बिना खोले
 जी नहीं सकता 
और गांठें हैं 
कि बिना बोले 
खुल नहीं सकतीं !

1 comment: