देवव्रत था ,
पर पिता की शांतनु-कामना ने ,
मुझे भीष्म बना दिया ,
मैं मर्यादा-पुरुषोत्तम होने भी
नहीं आया था ,
पर दशरथ पिता का,
विरथ पुत्र मैं ,
वन-वन डोलता
अपनी माता का हठ भार ढोता रहा !
कौन चाहेगा पिता से बैर करना ,
पर मेरी पदच्युत माता के
एकांत वनाश्रम को ,
-रौंदता हुआ आया ,
जब किसी सामंत का घोड़ा
मैं विवश था ,
मैंने लवकुश होकर
उस अहंकार को तोड़ा
और आज जो मैं,
इस समूची पृथ्वी का युद्ध-मुद्रा में
भेदन कर रहा हूँ
इसमें मेरा दोष नहीं है
मैंने तो गर्भ में ही एक युद्ध जिया
ओ पिता !
तुमनें मुझे
जन्म से पहले ही
चक्रव्यूह क्यों दिया ?
हिन्दी साहित्य की अद्वितीय रचना , जो समाज के वर्त्तमान परिवेश को भी चित्रित करती है ।
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